शादी में क्यों निभाई जाती है कन्यादान की रस्म, जानिए कैसे शुरू हुई ये परंपरा

कन्यादान महादान होता है। कन्यादान एक ऐसी रस्म है, जोकि पिता और बेटी के भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है। आइए, जानते हैं कि आखिर ये रस्म क्यों निभाई जाती है और ये परंपरा शुरू कैसे हुई।

By Manali Rastogi Last Updated: Dec 7, 2019 | 16:04:57 IST

हिंदू धर्म की शादियां तमाम रस्में और रिवाज निभाने के बाद ही पूरी मानी जाती हैं। जब तक सभी रस्में पूरी नहीं हो जाती हैं, तब तक कन्या और वर पति-पत्नी नहीं बनते। शादियों में हर रस्म और रिवाज का अपना महत्व होता है। सभी रस्मों में कन्यादान की रस्म काफी महत्वपूर्ण होती है। कन्यादान का अर्थ होता है कन्या का दान करना। ये दान सबसे बड़ा दान होता है। इसके तहत हर पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में सौंपता है, जिसके बाद कन्या की सारी जिम्मेदारियां वर को निभानी होती है। कन्यादान एक ऐसी रस्म है, जोकि पिता और बेटी के भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है।

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यह रस्म पिता और पुत्री के लिए काफी कष्टकारी होती है क्योंकि अपने जिस जिगर के टुकड़े को पिता जिंदगी भर प्यार से संभालकर बड़ा करता है, विवाह के वक्त उसे ताउम्र के लिए किसी और को सौंप देता है। तो वहीं, बेटी के जीवन में भी उसके पिता ही एक असली हीरो होते हैं, जिनकी जगह कभी कोई नहीं ले सकता। ऐसे में अपने माता-पिता और घर को छोड़कर नए घर में जाना एक कन्या के लिए भी उतना ही कष्टकारी है, जितना किसी माता-पिता के लिए अपनी बेटी को विदा करना। मान्यताओं के अनुसार, कन्यादान से बड़ा दान अब तक कोई नहीं हुआ है। यह एक ऐसा भावुक संस्कार है, जिसमें एक बेटी अपने रूप में अपने पिता के त्याग को महसूस करती है।

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जानिए कन्यादान का महत्व

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हिंदू धर्म ग्रंथों के मुताबिक, महादान की श्रेणी में कन्यादान को रखा गया है। यानि इससे बड़ा दान कोई नहीं हो सकता। शास्त्रों में कहा गया है कि जब शास्त्रों में बताये गए विधि-विधान के अनुसार, कन्या के माता-पिता कन्यादान करते हैं तो इससे उनके परिवार को भी सौभाग्य की प्राप्ति होती है।  शास्त्रों के अनुसार, कन्यादान के बाद वधू के लिए उसका मायका पराया हो जाता है और पति का घर यानि ससुराल ही उसका अपना घर हो जाता है। कन्या पर कन्यादान के बाद पिता का नहीं बल्कि पति का अधिकार हो जाता है।

भगवान विष्णु और लक्ष्मी का स्वरूप

विवाह में वर को भगवान विष्णु तो वधू को घर की लक्ष्मी का दर्जा मिलता है। घर की लक्ष्मी के अलावा कन्या को अन्नपूर्णा भी माना जाता है। दरअसल शादी के बाद किचन से लेकर पूरे घर की जिम्मेदारी कन्या की होती है। वहीं, मान्यताओं के मुताबिक विष्णु रूपी वर की बात करें तो विवाह के समय वह कन्या के पिता को आश्वासन देता है कि वो ताउम्र उनकी पुत्री को खुश रखेगा और उसपर कभी भी कोई आंच नहीं आने देगा। वैसे तो शादी में होने वाली हर रस्म का अलग महत्व होता है, लेकिन हर रस्म का मकसद एक ही है और वो है कि दोनों को अपने रिश्ते और परिवार को चलाने के लिए बराबर का सहयोग देना होगा क्योंकि परिवार किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है।

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कन्‍यादान से होती है मोक्ष की प्राप्ति, जानिए कैसे शुरू हुई ये रस्म

हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है। ऐसे में जिन माता-पिता को कन्यादान करने का मौका प्राप्त होता है, वो काफी सौभग्यशाली होते हैं। ऐसा माना गया है कि जो माता-पिता कन्यादान करते हैं, उनके लिए इससे बड़ा पुण्‍य कुछ नहीं है। यह दान उनके लिए मोक्ष की प्राप्ति मरणोपरांत स्‍वर्ग का रास्‍ता भी खोल देता है। वैसे इस बारे में भी कम लोगों को जानकारी है कि आखिर कन्यादान की रस्म शुरू कैसे हुई थी? पौराणिक कथाओं की मानें तो दक्ष प्रजापति ने अपनी कन्याओं का विवाह करने के बाद कन्यादान किया था। 27 नक्षत्रों को प्रजापति की पुत्री कहा गया है, जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ था। इन्होंने ही सबसे पहले अपनी कन्याओं को चंद्रमा को सौंपा था ताकि सृष्टि का संचालन आगे बढ़े और संस्कृति का विकास हो।

ऐसे की पूरी की जाती है कन्यादान की रस्म

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वैसे तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत में कन्यादान करने की दो अलग रस्में होती हैं। उत्तर भारत के कई स्‍थानों पर कन्या की हथेली को एक कलश के ऊपर रखा जाता है और फिर वधू की हथेली पर वर अपना हाथ रखता है। इसके बाद उसपर पुष्‍प, गंगाजल और पान के पत्ते रखकर मंत्रोच्‍चार किए जाते हैं। फिर पवित्र वस्‍त्र से वर-वधू का गठबंधन किया जाता है। इसके बाद सात फेरों की रस्‍म पूरी की जाती है। वहीं, दक्षिण भारत की बात करें तो यहां अपने पिता की हथेली पर कन्या अपना हाथ रखती है और अपने ससुर की हथेली के नीचे वर अपना हाथ रखता है। फिर इसपर जल डाला जाता है, जोकि कन्या की हथेली से होता हुआ वर की हथेली तक जाता है।

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कन्यादान की रस्म पिता और बेटी के भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है। ये रस्म शादी की महत्वपूर्ण रस्मों में से एक है। यह एक ऐसी रस्म है जो अपने परिवार के साथ दुल्हन के रिश्तों को काटती है और उसे नए परिवार और जीवन को स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है। हालांकि, जब तक किसी विवाह में कन्यादान और सात फेरों की रस्म पूरी नहीं होती, तब तक वो विवाह भी संपन्न नहीं होता। आपको हमारी ये स्टोरी कैसी लगी हमें कमेंट करके बताना न भूलें,  हमारे लिए कोई सलाह है तो जरूर दें।

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